Thursday, October 29, 2015

मेरा कुछ सम्मान मेरे पास पड़ा है ……

लोग अपने अपने सम्मान लौटा रहे हैं।  लेखक, कवि, फिल्मकार, वैज्ञानिक सब।  बहसें हो रही हैं कि ये सही है या ग़लत।  कारण सही है या ग़लत।  वक़्त सही है या ग़लत।  सत्तासीन लोगों का मानना है की ये साज़िश है सरकार के खिलाफ।  जेटली साहब ने तो इसका नामकरण भी कर दिया 'Manufactured Rebellion' . तो लिहाज़ा ये कि जो लोग भी सम्मान लौटा रहे हैं वो सम्मान का ही असम्मान कर रहे हैं।  ये बात मेरी समझ के बाहर है।  सबसे पहले ये समझ लिया जाय की सरकारी सम्मान  है क्या। जीवन के किसी भी क्षेत्र में एक बड़ी उपलब्धि के लिए सरकारों में, प्रदेशों में, विश्वविद्यालयों में स्कूलों में हर जगह सरकार ने या सरकारी संगठनों ने कई ऐसे सम्मान स्थापित किये हुए हैं जो प्रतिवर्ष कुछ लोगों को दिए जाते हैं।  ये याद करना ज़रूरी है की ये सम्मान होता क्या है।  साल के किसी निश्चित दिन या तारीख को इस सम्मान को घोषणा की जाती है।  अखबार, रेडियो, टीवी, और अब सोशल मीडिया पर भी।  फिर एक बेहद सम्माननीय समारोह में विजेताओं को एक मेडल, एक सर्टिफिकेट, शायद एक धन राशि, एक शाल, किसी सरकारी दस्तावेज़ में अड़सठवाँ नाम, या ऐसी कुछ चीज़ों से नवाज़ा जाता है।  ऐसे मौके की तसवीरें खिंचती हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी परिवार के लोगों की प्रतिष्ठा होती हैं।  अब देखने वाली चीज़ ये है कि इन सारी चीज़ों में से सम्मान कौन है।  वो मेडल या शाल, या वो धनराशि? क़तई नहीं।  सम्मान है वो क्षण जब वो घोषणा की गयी। मेडल तो खो जाते हैं, पैसे खर्च हो जाते हैं, सर्टिफिकेट और फोटो के फ्रेम में सीलन घुस के नाम और शक्ल धुंधला देती है। सम्मान सिर्फ वो क्षण है जब उसे पता चला की उसे सम्मानित किया गया, सम्मान वो मुस्कुराहटें हैं जो अपनों के चेहरे पर उस सम्मान के कारण आयीं।  सम्मान वो ढेर सारी सांस है जो सीने के अंदर महसूस हुयी। 
वो शख्स जिसने जाने क्या क्या त्याग किया होगा, जाने कितनी मेहनत की होगी उस क्षण को कमाने के लिए, वो आज कई सालों बाद कह रहा है की मेरा वो सम्मान वापस ले लो।  ये है मेरा सरमाया जो इस समाज से और में मैंने कमाया था और आज जहाँ मेरा समाज मुझे खड़ा दीखता है वहां मुझे ऐसा लगता है कि मुझे वापस अपने समाज पर काम करने की ज़रुरत है।  मुझे खुद अपनी आँखों में उस सम्मान को दोबारा कमाने की ज़रुरत है।  मुझे अपने समाज को बा आवाज़ ए बलन्द ये कहना है कि मैं तुम्हारा विरोध करता हूँ।  एक बात और है समझने की कि ये सारे सम्मान सरकार नहीं देती। सरकार है कौन? सरकार है समाज से और समाज के द्वारा चुने हुए कुछ प्रतिनिधि। तो सम्मान समाज देता है सरकार नहीं।  और विरोध भी उसी समाज से है कि आज जो कुछ भी हो रहा है अगर वही मेरा समाज है तो फिर तुम्हारा दिया हुआ सम्मान मुझे नहीं चाहिए।  इस बात न तो अशोक चक्र से कोई ताल्लुक़  है न किसी अकादमी से। तो ये बकवास तो बंद की जाय कि ये सम्मान का असम्मान है।  सम्मान से मनुष्य है और उसी मनुष्य से वो सम्मान भी है।  अयोग्य लोगों को दिए हुए सम्मान का कोई मान स्वयं नहीं होता। वो सम्मान और वो मनुष्य दोनों पूरक हैं एक दूसरे के।  रही बात ये कि आपने ये सम्मान तब क्यों नहीं लौटाया जब ……? नहीं लौटाया, तब इतनी पीड़ा नहीं हुयी,तब मैं इतना समझदार नहीं था, तब इतनी ताक़त नहीं थी।  आप गांधी से तो नहीं पूछ सकते न की ट्रेन से फेंके जाने का इंतज़ार क्यों किया, उसके पहले तो सूट टाई पहन के अंग्रेजी में गिटर पिटर करते थे। दुआ दो उस महात्मा को कि उस दिन तो ख़याल आया वरना चाकरी बजा रहे होते आज अंग्रेज़ों की।  
मित्रों, आसान है ये कह देना कि ये साज़िश है, या ये कह देना की वो कांग्रेसी है या नक्सली है।  ज़्यादा मुश्किल है अपने आप से ये पूछना कि देश का हर बुद्धिजीवी वर्ग इस ज़रिये कुछ कह रहा है, वो क्या है ? सम्मान तो वो पा ही चुका था अब क्यों अपने आप को इन लांछनों का शिकार बना रहा है।  सोचिये शायद कुछ सुनाई दे, कुछ समझ आये, कुछ नतीजा निकले। आरोप प्रत्यारोप से सिर्फ शोर होता है नतीजे सोच से निकलते हैं उद्यम से निकलते हैं।  वो लोग कुछ कह रहे हैं, ग़ौर से सुनिए और समझिए। 
जब भी समझदारी की बात करो ग़ालिब का कोई न कोई शेर याद आ ही जाता है।

ऐसा आसां नहीं लहू रोना।
दिल में ताक़त जिगर में हाल कहाँ।