Sunday, November 29, 2015

असहिष्णुता.CON


आप वो नहीं कह सकते जो उंन्हें पसंद नहीं।  या फिर वो जिस से इस बात का शक हो की आरोप शायद उन पर है,  फिर भले ही आप ने शायद अपने आप पर ही ग़लत होने का शक किया हो या अपनों पर। मुझे मेरे समाज की समीक्षा करने का अधिकार है।  मेरा समाज है, वो मुझ से है और मैं उस से। और सारी असहिष्णुता राजनीतिक नहीं है, व्यक्तिगत भी है, सामाजिक भी है। सुबह साढ़े सात बजे या रात के दो बजे ट्रैफिक लाइट पर रुक जाओ तो लोग हॉर्न मारने लगते हैं, ये असहिष्णुता है।  फ्लाइट लैंड होने पर पायलट की अनुमति के पहले अगर सारे यात्री खड़े होकर अपना सामान निकलने लगते हैं तो ये भी असहिष्णुता है। असहिष्णुता कोई राजनीतिक शब्द नहीं है। ये बीजेपी विरोधी शब्द नहीं है। ये मोदी विरोधी शब्द नहीं है।  कभी सोच के देखिये हवाई जहाज़ से सब साथ निकलेंगे, एक ही बस में अपने अपने सामान तक साथ जाएंगे, कमाल ये है की बस में से निकलने तक एक दुसरे को धकियाने का प्रयास चलता रहता है, फिर भले सामान की बेल्ट पर साथ खड़े रहेंगे।  ये सब असहिष्णुता है और इसे बीजेपी ले कर नहीं आई है।  मेरी थोड़ी बहुत समझदारी से इस असहिष्णुता का गर्भ सामाजिक असमानता में है।  होने और न होने के बीच की कई सतहों के बीच मुसलसल भागते लोग जो पाने और न पा लेने की रोज़ की लड़ाई में अक्सर ये भूलते रहते हैं कि पड़ोस में भी कोई खड़ा है जिसकी ज़रुरत मेरी ज़रुरत से भिन्न हो सकती है। ये भूलते रहते हैं की हम सब एक समाज का हिस्सा हैं जो एक शहर का हिस्सा है जो एक देश का हिस्सा है और जो एक दुनिया का हिस्सा है।  ये भूल जाना कि मेरे साथ और भी कोई सफर में है, और वो भी वहीँ जा रहा है जहां मैं जा रहा  हूँ।  उसका घर हरा हो सकता है और मेरा गेरुआ पर हैं दोनों घर ही और थोड़ा शांति से सोचें तो दोनों घर पड़ोस में ही हैं।  ये भूल जाना असहिष्णुता है।  ये भूल जाना की उसका सफर भी मेरे सफर जितना ही महत्वपूर्ण है, ये असहिष्णुता है।  आमिर या शाह रुख के पीछे खड़े हो जाइये या उन के सामने ये आपका फैसला है।

असहिष्णुता की बहस में हम ग़लत सहिष्णुता सीख गए हैं।  उस सड़क से अपनी गाडी में बैठ के गुज़र जाना जिसके फूटपाथ पर बच्चे सोते हैं ये ग़लत सहिष्णुता है। अपने समाज से और अपनी सरकार से ये न पूछना की इस इस देश के ४० प्रतिशत लोगों को खाना क्यों नहीं मिलता ये ग़लत सहिष्णुता है।  जय जवान जय किसान वाले इस देश में लाखों किसान हर साल आत्महत्या क्यों कर रहा है ये न जानना ग़लत सहिष्णुता है, सिर्फ इसलिए की आपका बच्चा स्कूल जाता है इस सवाल को भूल जाना कि मेरी गाडी के शीशे पर दस्तक देता बच्चा स्कूल क्यों नहीं गया ये ग़लत सहिष्णुता है। हम ग़लत चीज़ें सह कर असहिष्णुता की बहस में व्यस्त हैं।  असहिष्णुता व्यक्तिगत बीमारी है, सामाजिक बीमारी है। राज्नीति में इसका सिर्फ इस्तेमाल होता है।

अखलाक़ के घर में गोमांस नहीं था ये बात साबित हो चुकी है।  चलिए माना कि उस रात भीड़ से ग़लती हो गयी। एक बेटा जो हिंदुस्तानी वायुसेना के लिए काम करता था उसके बाप को इस शक में मार दिया गया कि उसके फ्रिज में गोमांस था।  कृपया मेरी इस बात में कोई तंज़ न पढ़ें क्यूंकि नहीं है। भीड़ का कोई किरदार नहीं होता, एक जूनून होता है एक कोलाहल होता है। अचानक एक आवाज़ आई होगी कि 'मारो साले को' और एक हत्या हो गयी।  पर आज सबको पता है कि गोहत्या नहीं हुयी थी, शायद उस परिवार को उसके पुश्तैनी घर से हटा कर कहीं और भेज दिया गया। कितने हिन्दुओं ने खड़े होकर कहा कि ये ग़लत हुआ? सरकार के किन नुमाइंदों ने कहा कि ये ग़लत हुआ? हमने माना कि याकूब मेमन को टीवी स्टार बना दिया गया था और उसके जनाज़े की अथाह भीड़ में ज़्यादातर लोग कौतूहल के कारण थे सम्मान के कारण नहीं। पर सच ये है की उसके जनाज़े में हज़ारों मुसलमानों ने शिरकत की। कितने मुसलामानों ने कह दिया कि ये ग़लत था? हमसफ़र हैं हम और हमें ख्याल रखना पड़ेगा कि हमारे साथ कौन खड़ा है और उसकी ज़रूरियात क्या हैं।  दादरी के बाद मुसलामानों को अच्छा लगता अगर सब हिन्दू मिल के कहते कि ग़लती हुयी। याकूब के जनाज़े के बाद हिन्दुओं को अच्छा लगता अगर मुसलमान खड़े होकर मानते की ग़लती हुयी। याकूब को बम्बई बम धमाकों के लिए अदालत ने मौत की सजा दी।  अदालत ने फांसी की सुबह चार बजे तक बहस की पर फिर भी माना कि वो दोषी था, इतना दोषी कि उसे फांसी दे दी जाय तो फिर हमें उस फैसले का सम्मान करना होगा। वो अदालत हमारे समाज में न्याय करने की व्यवस्था है। ऐसे और कई मौके हैं जब हिन्दू और मुसलमान दोनों ने अपने अपने फ़र्ज़ नहीं निभाए।  दोनों ने अपने पड़ोसियों का ख्याल नहीं रखा। ये अलग बहस है की क्यों नहीं रखा। और यहाँ से राजनीति का अपना किरदार शुरू होता है।

ये हमेशा याद रखने वाली बात है कि जो मुसलमान हिन्दुस्तान में रहते हैं वो वो मुसलमान हैं जिन्होंने १९४७ में इस देश को अपना वतन माना था।  उनके पास मौक़ा था की वो एक मुसलमान देश चले जाते।  वो नहीं गए क्योंकि वो एक धर्म निरपेक्ष देश में अल्पसंख्यक बन के रहने को तैयार थे बनिस्बत इस के कि वो एक बहुसंख्यक मुसलमान समाज में पाकिस्तान में रहते। इस बात का सम्मान होना चाहिए।  कम से कम ये तो तय है कि देश के लिए उनका प्यार हमारे प्यार से कम नहीं है। हाँ खराब लोग  हर धर्म में हैं, हिन्दुओं में भी और मुसलामानों में भी। असल अल्पसंख्यक दरअसल वो हैं। चौरासी ग़लत था, ९२ ग़लत था, गोधरा, मुज़फ्फरनगर, अयोध्या, कश्मीर सब ग़लत था और अलग अलग वक़्त अलग अलग लोगों ने इन सभी हत्याओं का विरोध किया और अगर नहीं किया तो वो भी ग़लत है, करना चाहिए था।  पर ये भी सही नहीं  है कि जो आज पहली बार बोल रहे हैं, अगर पहली बार बोल रहे हैं तो उनको इस वजह से खामोश कर दिया जाय क्योंकि वो पहली बार बोल रहे हैं।

प्रभुत्व इंसान की कमज़ोरी है और इंसान से ही समाज है, लिहाज़ा ये सामाजिक कमज़ोरी भी है।  समाज ग़लतियाँ करते रहे हैं करते रहेंगे, इस यूटोपियन खयाली पुलाव से बच निकलना चाहिए कि असहिष्णुता खत्म हो जायेगी। ये बहुरंगी समाज की समस्या है। पर इस से भी बड़ी समस्या राजनीतिक है।  इस से भी बड़ी समस्या ये है क्या राज्नीति समाजिक असहिष्णुता का प्रयोग अपने लाभ के लिए करेगी। अगर आप बयानबे, गोधरा, कश्मीर याद रखते हैं तो आपसे ये अपेक्षा है कि आपको याद हो कि सामाजित असहिष्णुता का राजनीति ने हमेशा इस्तेमाल किया है। ४७ के पहले से, अब भी कर रही है, लड़ाई इस बात से होनी चाहिए और शायद है भी कि सरकारी तंत्र में असहिष्णुता कैसे हो सकती है। वो लोग जो संसद में बहुसँख्यक सरकार का हिस्सा हैं वो कैसे असहिष्णुता का प्रचार कर सकते हैं।  वो लोग कैसे बच के निकल जाते हैं अमानवीय और असंवेदनशील बयानों और तकरीरों के बाद। क्यों आये दिन हिन्दू राष्ट्र का तस्करां होता रहता है, ये असंवैधानिक बहस है और सरकार की ज़िम्मेदारी है की इस बहस को बंद किया जाय, या कम से कम किसी एक तक़रीर में स्पष्टतः कह दिया जाय कि सरकार इस बहस  में किस तरफ है। Good Cop, Bad Cop का खेल अब बेहद पारदर्शी हो चूका है। कैसे बनेगा हिन्दू राष्ट्र? क्या सारे मुसलमान, सिख, ईसाई सब हिन्दू बन जाएंगे? या फिर वो सब अपने अपने धर्मों को मानते हुए हिंदुत्व के प्रभुत्व को स्वीकार कर लेंगे? या फिर कुछ और छोटे छोटे पाकिस्तान, खालिस्तान और एंग्लोस्तान बनेंगें? ये बात समझ नहीं आती है।  समझ में आती है तो सिर्फ ये बात कि असहिष्णुता समाज में है, सिर्फ समाज में और अगर हम इस से निजात पा लें तो कोई भी राजनीति कभी भी इसका इस्तेमाल नहीं कर सकेगी। ज़रुरत है कि हम अपनी सरकारों से सही सवाल पूछें।  सिर्फ बीजेपी से सिर्फ मोदी मोदी (टाइपिंग एरर नहीं है, उनका नाम मुझे हमेशा दो बार ही सुनाई देता है) जी से नहीं  नहीं अखिलेश, नितीश, केजरीवाल, जयललिता, ममता सबसे कि मेरे बच्चे का स्कूल कहाँ है और मेरे पडोसी की माँ का अस्पताल कहाँ है? रोटी कमाने अपने परिवार को छोड़ के बम्बई क्यों जाना पड़ता है? मेरे खेतों में पानी क्यों नहीं आता? सही सवाल पूछो उनसे ताकि वो तुम्हें तुम्हारे ग़लत सवालों में न उलझाये रखें।  असहिष्णुता तुम में है, उन में नहीं वो तो उनका हथियार मात्र है। उनसे कह दो कि बाक़ी हम आपस में संभाल लेंगे।  पडोसी दिन में पांच बार लाऊड स्पीकर पर शोर मचाते हैं तो हम भी साल में आठ दस बार सड़कें जाम कर देते हैं। हम उनसे बात करके मामले सुलझा लेंगे। आखिर वो पडोसी हैं हमारे, फिर क्या हुआ कि हमारे घरों के रंग अलग हैं।



BTW असहिष्णुता= Intolerance, Impatience



ग़ालिब मेरे cousin थे शायद पिछले जनम में, जब भी समझदारी की कोई भी बात करता हूँ वो याद आ जाते हैं.


बक रहा हूँ जुनूँ में क्या क्या कुछ।
कुछ न समझे ख़ुदा करे कोई।

Thursday, October 29, 2015

मेरा कुछ सम्मान मेरे पास पड़ा है ……

लोग अपने अपने सम्मान लौटा रहे हैं।  लेखक, कवि, फिल्मकार, वैज्ञानिक सब।  बहसें हो रही हैं कि ये सही है या ग़लत।  कारण सही है या ग़लत।  वक़्त सही है या ग़लत।  सत्तासीन लोगों का मानना है की ये साज़िश है सरकार के खिलाफ।  जेटली साहब ने तो इसका नामकरण भी कर दिया 'Manufactured Rebellion' . तो लिहाज़ा ये कि जो लोग भी सम्मान लौटा रहे हैं वो सम्मान का ही असम्मान कर रहे हैं।  ये बात मेरी समझ के बाहर है।  सबसे पहले ये समझ लिया जाय की सरकारी सम्मान  है क्या। जीवन के किसी भी क्षेत्र में एक बड़ी उपलब्धि के लिए सरकारों में, प्रदेशों में, विश्वविद्यालयों में स्कूलों में हर जगह सरकार ने या सरकारी संगठनों ने कई ऐसे सम्मान स्थापित किये हुए हैं जो प्रतिवर्ष कुछ लोगों को दिए जाते हैं।  ये याद करना ज़रूरी है की ये सम्मान होता क्या है।  साल के किसी निश्चित दिन या तारीख को इस सम्मान को घोषणा की जाती है।  अखबार, रेडियो, टीवी, और अब सोशल मीडिया पर भी।  फिर एक बेहद सम्माननीय समारोह में विजेताओं को एक मेडल, एक सर्टिफिकेट, शायद एक धन राशि, एक शाल, किसी सरकारी दस्तावेज़ में अड़सठवाँ नाम, या ऐसी कुछ चीज़ों से नवाज़ा जाता है।  ऐसे मौके की तसवीरें खिंचती हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी परिवार के लोगों की प्रतिष्ठा होती हैं।  अब देखने वाली चीज़ ये है कि इन सारी चीज़ों में से सम्मान कौन है।  वो मेडल या शाल, या वो धनराशि? क़तई नहीं।  सम्मान है वो क्षण जब वो घोषणा की गयी। मेडल तो खो जाते हैं, पैसे खर्च हो जाते हैं, सर्टिफिकेट और फोटो के फ्रेम में सीलन घुस के नाम और शक्ल धुंधला देती है। सम्मान सिर्फ वो क्षण है जब उसे पता चला की उसे सम्मानित किया गया, सम्मान वो मुस्कुराहटें हैं जो अपनों के चेहरे पर उस सम्मान के कारण आयीं।  सम्मान वो ढेर सारी सांस है जो सीने के अंदर महसूस हुयी। 
वो शख्स जिसने जाने क्या क्या त्याग किया होगा, जाने कितनी मेहनत की होगी उस क्षण को कमाने के लिए, वो आज कई सालों बाद कह रहा है की मेरा वो सम्मान वापस ले लो।  ये है मेरा सरमाया जो इस समाज से और में मैंने कमाया था और आज जहाँ मेरा समाज मुझे खड़ा दीखता है वहां मुझे ऐसा लगता है कि मुझे वापस अपने समाज पर काम करने की ज़रुरत है।  मुझे खुद अपनी आँखों में उस सम्मान को दोबारा कमाने की ज़रुरत है।  मुझे अपने समाज को बा आवाज़ ए बलन्द ये कहना है कि मैं तुम्हारा विरोध करता हूँ।  एक बात और है समझने की कि ये सारे सम्मान सरकार नहीं देती। सरकार है कौन? सरकार है समाज से और समाज के द्वारा चुने हुए कुछ प्रतिनिधि। तो सम्मान समाज देता है सरकार नहीं।  और विरोध भी उसी समाज से है कि आज जो कुछ भी हो रहा है अगर वही मेरा समाज है तो फिर तुम्हारा दिया हुआ सम्मान मुझे नहीं चाहिए।  इस बात न तो अशोक चक्र से कोई ताल्लुक़  है न किसी अकादमी से। तो ये बकवास तो बंद की जाय कि ये सम्मान का असम्मान है।  सम्मान से मनुष्य है और उसी मनुष्य से वो सम्मान भी है।  अयोग्य लोगों को दिए हुए सम्मान का कोई मान स्वयं नहीं होता। वो सम्मान और वो मनुष्य दोनों पूरक हैं एक दूसरे के।  रही बात ये कि आपने ये सम्मान तब क्यों नहीं लौटाया जब ……? नहीं लौटाया, तब इतनी पीड़ा नहीं हुयी,तब मैं इतना समझदार नहीं था, तब इतनी ताक़त नहीं थी।  आप गांधी से तो नहीं पूछ सकते न की ट्रेन से फेंके जाने का इंतज़ार क्यों किया, उसके पहले तो सूट टाई पहन के अंग्रेजी में गिटर पिटर करते थे। दुआ दो उस महात्मा को कि उस दिन तो ख़याल आया वरना चाकरी बजा रहे होते आज अंग्रेज़ों की।  
मित्रों, आसान है ये कह देना कि ये साज़िश है, या ये कह देना की वो कांग्रेसी है या नक्सली है।  ज़्यादा मुश्किल है अपने आप से ये पूछना कि देश का हर बुद्धिजीवी वर्ग इस ज़रिये कुछ कह रहा है, वो क्या है ? सम्मान तो वो पा ही चुका था अब क्यों अपने आप को इन लांछनों का शिकार बना रहा है।  सोचिये शायद कुछ सुनाई दे, कुछ समझ आये, कुछ नतीजा निकले। आरोप प्रत्यारोप से सिर्फ शोर होता है नतीजे सोच से निकलते हैं उद्यम से निकलते हैं।  वो लोग कुछ कह रहे हैं, ग़ौर से सुनिए और समझिए। 
जब भी समझदारी की बात करो ग़ालिब का कोई न कोई शेर याद आ ही जाता है।

ऐसा आसां नहीं लहू रोना।
दिल में ताक़त जिगर में हाल कहाँ। 

Saturday, April 18, 2015

'ORNOB with an A'

Deeply understood transcript of a televised conversation between Minister HRD HE Ms Smriti Irani with Arnab Goswami.

What's your name?
What's in a name? You call a rose by...
What's your name?
This country is full of nameless people..
Answer my question...
The answer my friend is Blowin' in the wind...
So you will not tell me your name?
I just did. Thrice. Three different names... By the way what is yours? Tell me one...
I have only one name Ms Irani. Its ORNOB with an A.But you      didn't answer my question.
Which question?
The one that you did not answer.
I answered it with another question.
But Ms Irani I answered that question with an answer.
So we are quits Ornob with an A?
My name is Ornob.
But you just said it is Ornob with an A?
That's the pronunciation.
But you said that was an answer?
Don't dodge my question Ms Irani.
I don't dodge questions. I dodge answers.
Can I question that answer?
Which answer?
To my question
But I didn't answer any.
Exactly. But Ms Irani, Nation wants the answer.
Nation? I run the Nation. Who are you?
Ms Irani, let's be very clear it is my turn to ask the question.
Okay, turn it down and ask.
(Holds his anger) Ms IRANI what is your Name?
You remind me of Dhram Ji from SHOLAY.'Tumhara naam kya hai Basanti'
That's the problem with BJP.
You know about it?
About what?
The problem with the BJP?
The whole country knows.
BJP won 282 seats Mr Ornob with an A.
I mean since then. But Ms Irani why can't you tell me your name?
Mr Goswami if you remember in early 2014 when Rahul Gandhi refused to...
But then your party gave him another name..
That's not the point Mr Ornob with an A.
Then what is the point Ms Irani?
The point is that in eleven months the BJP Government has installed eleven thousand toilets in the country.
But what have toilets got to do with your name?
Exactly.
Exactly what?
Our Government is very clear that toilets will have nothing to do with names.
But what is your name Goddammit?
That is not my name.
What?
Goddammit.
I thought we were having a conversation Ms Irani.
I thought we were having a hashtag and two commercial breaks with some free publicity on the side Mr Ornob with an A.
I thought the hashtags and the breaks were about your name not mine but anyway Thank you Ms Irani for being on the show.






Tuesday, April 14, 2015

ई ससुरी NET NEUTRALITY है क्या बे ?

मैंने मेरे एक डायरेक्टर फ्रेंड से पूछा कि net neutrality के लिए कर क्या रहे हो।  वो थोड़ा शर्मिंदा हो गया और बोला सुन तो रहा हूँ की कुछ चल रहा है पर सच कहूँ तो समझ नहीं आ रहा कि है क्या ये। मैं थोड़ा चिंता में पड़ गया। अगर पढ़े लिखे लोग अनभिज्ञ हैं तो किसी और को क्या समझ आएगा।  सोचा चार लाइनें लिख देता हूँ, चार लोगों को भी समझा पाया तो काफी होगा।  अंग्रेजी में काफी बातें उपलब्ध हैं नेट पे, हिंदी में कम है।  मैं इंजीनियर भी हूँ और भैय्या भी सो सोचा हिंदी वाली ज़िम्मेदारी मैं निभा देता हूँ।
पहली बात, इंटरनेट है क्या।  दुनिया भर में हज़्ज़ारों लाखों करोड़ों कम्प्यूटर्स हैं जो आपस में एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।  किसी कंप्यूटर पर संगीत है, तो किसी पर भूगोल तो किसी पर इतिहास तो किसी पर और कुछ तो किसी पर सब कुछ।  ये सारा कुछ मिला कर इतना है कि आप कभी भी कुछ भी जानना चाहें तो आपने देखा होगा कि मिल ही जाता है अमूमन।  अगर इन सारे जुड़े हुए कम्प्यूटर्स को एक कंप्यूटर मान लें तो ये है इंटरनेट।  जैसे ही आपका कंप्यूटर इस इंटरनेट से जुड़ता है, आपका कंप्यूटर भी उन हज़्ज़ारों लाखों करोड़ों कम्प्यूटर्स का हिस्सा बन जाता है जिनसे इंटरनेट बनता है। 
दूसरी बात, आपका कंप्यूटर इंटरनेट से जुड़ता कैसे है।  ध्यान रखें कि मैं यहाँ जब भी कंप्यूटर कहूँगा मेरा मतलब आपके मोबाइल  से भी है।  आपका मोबाइल फ़ोन भी एक  कंप्यूटर ही है।  स्मार्ट फ़ोन तो बाक़ायदा कम्प्यूटर्स हैं।  कंप्यूटर मूल रूप से अंग्रेजी का शब्द है और क्या।  वह यन्त्र जो कंप्यूट कर सके। कंप्यूट माने कैलकुलेट जैसा कुछ।  सो प्रश्न यह कि आपका कंप्यूटर इंटरनेट से जुड़े कैसे। हमारे देश में, हमारी सरकार ने कई निजी कंपनियों को इस सेवा का 'लाइसेंस' दे रखा है।  ये कम्पनियाँ हमें मोबाइल सर्विस भी देती हैं और उसी के साथ इंटरनेट सर्विस भी।  और भी कई कम्पनियाँ हैं जो मोबाइल के अलावा दफ्तरों, घरों इत्यादि में इंटरनेट सेवा का प्रावधान करती हैं। तो लिहाज़ा इन कंपनियों को सरकार ने 'लाइसेंस' दिया है हमारे कम्प्यूटर्स को इंटरनेट से जोड़ने की सुविधा देने का।  दुबारा कहता हूँ इन कंपनियों को सरकार ने 'लाइसेंस' दिया है की ये हमारे कम्प्यूटर्स को 'इंटरनेट' से जोड़ने की सुविधा दें और उसके बदले हमसे पैसे लें।  इंटरनेट इन कंपनियों का नहीं है।  वो मेरा और आपका है।  उन हज़्ज़ारों लाखों करोड़ों कम्प्यूटर्स का है जिनसे इंटरनेट बनता है।  ये कंपनियां सिर्फ तार जोड़ती हैं हमारे कम्प्यूटर्स के।  और एवज़ में हमसे पैसे लेती हैं।  इनको ISP (इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर) कहते है और फ़ोन के ज़रिये ऐसा करने वालों को TSP (टेलीकम्यूनिकेशन सर्विस प्रोवाइडर) ।
अब तीसरी बात।  इन हज़्ज़ारों लाखों करोड़ों कम्प्यूटर्स के मालिक।  ये बड़े दिमाग़दार लोग हैं।  इन्हें पता लगा कि इतने कम्प्यूटर्स जुड़ गए तो इन्होने इस इंटरनेट पर आधारित हज़ारो सेवाएं बना डालीं।  इमेल से शुरूआल हुयी, फिर इमेल अटैचमेंट, फिर स्काइप , फिर फेसबुक, ट्विटर, फ्लिपकार्ट और न जाने क्या क्या।  और अभी तो न जाने कहाँ रुकेगी बात।  इन में से बहुत सारी सेवाएं मुफ्त हैं।  उनकी क्या इकोनॉमिक्स है वो फिर कभी।  पर बहुत सारी ऐसी सेवाएं हैं जो हमसे इंटरनेट के अलावा अलग से पैसे लेती हैं।  हम ख़ुशी से देते भी हैं क्योंकि ये सेवाएं हमे पसंद हैं और हमें चाहिए।  अब अगर आप टीवी देखते हैं तो सोचिये आजकल कितने एड ऐसे हैं जो इन्यटर्नेट पर आधारित सेवाओं के हैं।  फ्लिपकार्ट, क्विकर, मेक माय ट्रिप और ऐसे न जाने कितने।  ज़ाहिर है जब वो लोग आपका ध्यान आकर्षित करने के लिए हज़्ज़ारों  करोड़ों खर्च कर रहे हैं तो वो कमा कितना रहे होंगे।  दुबारा बोलता हूँ  "जब वो लोग आपका ध्यान आकर्षित करने के लिए हज़्ज़ारों  करोड़ों खर्च कर रहे हैं तो वो कमा कितना रहे होंगे"
यहाँ है जड़ सारी समस्या की।  दुबारा पूछता हूँ, इंटरनेट है क्या ???? इंटरनेट है  हज़्ज़ारों लाखों करोड़ों कम्प्यूटर्स जो आपस में जुड़े हुए हैं।  उन्हें जोड़ा किसने ? ISP, और TSP ने।  अब वो कहते हैं की जोड़ें हम और कमाए फ्लिपकार्ट?  दरअसल किसी ने सोचा नहीं था कि इंटरनेट यहाँ तक पहुंचेगा।  केक छोटा था, उसका एक टुकड़ा मिला तो काफी था।  अब केक बड़ा हो रहा है।  क्या पता कितना बड़ा होगा कम्बख़त।  सात सौ करोड़ लोग हैं दुनिया में, अभी सिर्फ चालीस फ़ीसदी इस्तेमाल करते हैं नेट तो ये हाल हैं बिज़नेस का, ये आंकड़ा अगर सत्तर पिचहत्तर पे पहुँच गया तो? आज से ही  नियम बना दो कि हमारी हिस्सेदारी सबसे फायदे की हो।  हम जोड़ते हैं हर कंप्यूटर को इंटरनेट से, हम जिस सुविधा को चाहें बेहतर चलायें और जिसको चाहें धीमा कर दें या एकदम नकारा ही कर दें।  TSP और ISP के पास वो ताक़त है कि अचानक आपके मोबाइल पर फेसबुक लोड होना स्लो  जाय, या बंद ही हो जाय।  या कोई भी और सेवा।  उसे सही रफ़्तार पे चलाना है तो कुछ पैसे और लगेंगे।  कुछ आपसे लिए जाएंगे और कुछ उस सेवा वाले से।  वो सेवा वाला भी खुद नहीं देगा, घुमा फिर के आप से ही लेगा।  आप भी देंगे, खून लग चुका है आपके मुंह।  खून लगा दिया गया है आपके मुंह।  लड़ाई ये है की ऐसा नहीं होना चाहिए।  हम अगर इंटनेट पर गए तो हर सेवा हमें वैसे ही मिलनी चाहिए जैसी वो उपलब्ध है।  उसकी परफॉरमेंस पर TSP और ISP  का कोई इख्तियार नहीं होना चाहिए।  हम तय करें कि हमें कौन सी सेवा चाहिए।  ये है NET NEUTRALITY

आखिरी बात।  देश में एक सरकारी संस्था है TRAI . इनकी ज़िम्मेदारी है कि ये तमाम TSP और ISP अपनी तमाम ज़िम्मेदारियों का पालन करें।  वो ज़िम्मेदारियाँ जो उन्होंने लाइसेंस लेते वक़्त sign की थीं।  चूंकि ये नया परिवर्तन जो TSP और ISP मांग रहे हैं ये TRAI एकतरफा नहीं कर सकती थी लिहाज़ा हमसे से और आप से हमारी राय मांगी है।  दो रास्ते हैं।  एक जो TRAI का है http://www.trai.gov.in/Content/ConDis/10743_0.aspx . ये बेहद मुश्किल रास्ता है पर है ये भी।  और दूसरा आसान रास्ता ये है जो कुछ अच्छे लोगों ने आपके लिए बनाया है।  वो है http://www.savetheinternet.in/ . देख दोनों लें।  इस्तेमाल वो करें जो आपको बेहतर लगे।  पर मेहेरबानी कर के अपनी राय ज़रूर भेजें वरना INTERNET तो बचेगा नहीं, क्या पता कब EXTERNET बने और हम फिर मिलें ।  लाइफ में कुछ ज़िम्मेदारियाँ भी होती हैं निभाने के लिये। निभा चुकने के बाद अच्छा एहसास होता है। TRAI कर के देखिये। 

Thursday, March 12, 2015

Is There a fifth shade of Grey?



First Shade of Grey: You are someone who likes the existing Political System that has run the country for 68 years. Congress will come BJP will go. BJP will come Congress will go. Both will go and some smaller parties will forge an impossible alliance that will have the country and us as the last priority because the top priority will be to keep the Government afloat.

Second Shade of Grey: You are someone who will back a WIP Alternate Political ideologue that will, to a large extent, act upon the country, corruption, Governance, poverty and people albeit still not blemish free.

Third Shade of Grey: You are someone who will judge the existing Powerful First Shade and the Struggling Second shade at two entirely different moral standards. Besides the point that the new ideologue promises to be very different, the fact being that the new one is CERTAINLY different. 'Very different' is subjective anyways.

Fourth Shade of Grey: You are someone who is more interested in the humor that you can create and discover in the situation without realizing that this may inadvertently harm a political alternative that has finally managed to democratically challenge ever so powerful system of Monarchy that has successfully been disguised at Democracy over the years.

Sunday, February 8, 2015

All India Bakchod 'Roasted'


I am not writing this because like most I must have an opinion too regarding AIB ROAST. I am writing this because ever since I saw the episodes on the day of the release, something about it has been troubling me. Please remember, that very evening, there was no controversy. So clearly I was not affected by external reasons. I didn’t clearly know if I was offended and honestly I did not even think enough about being so. I laughed a lot. I thought it was mostly very funny, I thought it was courageous of celebrities to participate in something that’s been essentially underground. But something remained with me. Something uncomfortable. I didn’t and couldn’t figure what. The next day the controversy erupted when a lot of people found it offensive.

So, what is ‘offensive’? Dictionary says Offensive is ‘Causing someone to feel upset, resentful or annoyed’. So obviously, going by the protests, written or otherwise, some people are ‘offended’. No two ways about it. Like I said I wasn’t sure if I personally was offended, more about  my personal feelings later because I have now figured them.

The first question first. What is AIB? The full form is All India Backchod. Backchod is a commonly known and used slang and it harmlessly means ‘Meaningless talk’. One sample use would be “Come home this evening, we will hang and do some Bakchodi”. Let’s not miss the fact Bakchod includes another slang CHOD that means ‘to fuck’ and obviously it is a very popular slang it is like potatoes of slangs, you can use it anywhere. Examples would be Madar’chod’, Behen’chod’ etc etc. By the way Behenchod and its varied usage as a slang is something one could write a separate blog on. That later, if at all.  

So essentially if you divide Bakchod into two words it is Bak and Chod. Bak is a slang for Hindi word ‘Wakya’ which means a ‘Sentence’ but Bak is also used as ‘Bakna’ which means ‘Saying meaningless sentences’. So basically Bakchod means ‘Fucking with meaningless Sentences’.

Now All India Bakchod is a homegrown Adult show on the web. While we are at it let’s also understand the relevant meaning of ‘Adult’ here. Adult in legal terms means 18 years and 21 years or whatever. Adult also is a censorship certificate in India. Incidentally Censor Certification does not apply to web content. Why? Well that is another discussion. So AIB is an Adult web show in India, possibly the most popular web show in India.

Just an aside, India has a long tradition of telling adult jokes verbally and since the advent of computers and cellphones people also share Adult jokes via emails, text messages, whatsapps and BBMs. It is irrelevant to say that BBMs are not much in use these days. Whatsapp is more ‘in’.  Having said that, there is no clarity on the legality of the consumption of such jokes.

So AIB, after having gained much popularity and even a sponsorship from a ‘legal’ company decided to organize a ‘ground event’ that would also feature some serious Bollywood stars. The show would be called ‘AIB Roast’. It was to be on the lines of ‘Comedy Central Roast’ that started in the US in the late 90s and was aired on Comedy Central Cable TV Network. As the name suggests, Celebrities were ‘Roasted’ on these comic acts.

So AIB Roast was doing the same and quite a few celebrities agreed to be roasted and also to witness the roast. It was organized, advertised on Book My Show, FB and a host of other platforms. Tickets were sold and reportedly 4000 people attended the show in Worli.

Let us talk about the Ground event now. For any ground event in India you need a set of permissions from the Local Administration. Did the organizers get those permissions? I don’t think they would be able to go through such a big event without the requisite permissions. So I am suspecting the application did say the name of the show AIB ROAST if not an All India Bakchod event. Now AIB ROAST doesn’t say anything about the event at all. It could mean a cookery show with Turkeys. So I am also suspecting that the concerned authorities asked more about the show. If they didn’t, why? If they did, did the organizers lie? If they did, unfortunately they will be booked. But to my knowledge, the ground event did not offend anyone at all. It is the You Tube episodes.

The live show was also shot and put on the web in three episodes. Everything went fine until some to begin with and then a lot of people got ‘offended’. Then obviously the administration got offended and now some legal action is in process against the organizers, the participants and some celebrity audience. I am really intrigued why book only the celebrity audience why not all. Let us be clear about one fact that none of the participants or the audience is reported to be offended unless I am ignorant. So, the offended community is the people who saw it on You Tube.

I have some questions here. You can’t accidentally get in to an AIB video. If you type AIB in the search bar on You Tube, it clearly announces ALL INDIA BAKCHOD. If you are the offended types the name itself should offend you. Why did you play the video? Let me give you a personal example. I, unfortunately very often on FB these days, chance upon videos of beheadings by the ISIS. The post tells me what it is and I invariably delete that content from my timeline without watching it. Because I know it will offend me for sure. You possibly can’t go in to figure let me see ‘how offensive’ can this be and then get offended and then complain. The show is called ALL INDIA BAKCHOD for God’s sake and it will obviously get worse inside. And if I remember correctly, the video started with a clear disclaimer that lasted long enough for you to stop the video and exit unlike those speeded up audio disclaimers at the end of Mutual Fund Ads. They are over before you can hear them. So the answer is DON’T WATCH IT if you are prone to getting offended by such humor. And before I conclude I don’t think there is anything wrong with getting offended by such humor. It is your belief system and I respect it. I remember reconnecting with an old friend Parvez after twenty years. After a couple of connecting emails I ended up mailing him an adult joke like good old days when we were twenty, and he responded by saying that he didn’t enjoy those jokes any more. I apologized and never sent him those jokes again. We are still great friend and he continues to deliver lectures on religion all across the globe. So there is evidence of people moving on from such humor and that is perfectly fine. But a video titled All India Bakchod should not be opened by Parvez. I hope he hasn’t. At least he should stop at the warning in the beginning. No? Different kinds of material offend people; I get offended by the live telecast of some of our parliament sessions. Specially the ones when they throw mikes at each other. Imagine the kind of impact that it can have on our children. But we telecast those on national TV. I don’t know if that should be termed as Adult content because younger ones can lose faith in parliamentary democracy after seeing that.

The humble point that I am making is who will decide what is offensive. Of course there is a Censor Board that monitors/regulates and certifies material that will go on public platforms that are endorsed by the Government besides the point that their guidelines need to be relooked at. So a ground event attended by consenting adults can’t offend anybody. It clearly didn’t. The You Tube version of it had a clear warning that the material could offend some. What I am insisting on is ‘If you know you are getting in to an AIB video clip, you should know it could be offensive for you. Then my question is why did you watch it? Why did you stop in the first instance of offense? Were you enjoying watching the whole show and getting upset that how can someone make it? Were you getting upset at every offensive instance and still going through it? In that case ask yourself would you still be half as offended if there were no celebrities involved. So is the question about celebrities endorsing an offensive act? Because if it is not about celebrities, trust me there are gazillion You Tube video clips that are extremely offensive and no one ever complained about those. You haven’t seen them? Look for them.

The problem here is that the event involved stars. That makes it two problems. One. These are stars and if I catch them on the wrong foot I will sound right. Two. Indian society worships their stars and gets offended to see them do any wrong. In that case my friend this is a choice that the stars made. They are intelligent enough to realize that in the process that they could lose some of their fans or who knows may be gain some. But this is STRICTLY their choice. The best or the worst that you can do about it is to stop liking them. I don’t know what is illegal about it UNLESS there were issues with the requisite permissions with the ground event.

I rest my case.

Oh yes what was troubling me? I thought it was very, very, very funny. Before I tell you my issue you must remember that I come from a middle class family in Benaras. I need to tell you one small episode from my life to tell you where I come from. My first night in BOMBAY I had the privilege of having a drink with Javed Akhtar Sb. In the society that I come from you don’t drink or smoke in front of elders besides the point that you can have a pan with tobacco with them. Quite paradoxical I know, like our society. So my first night in BOMBAY (That gives me 2 occasions to use this name) I drank with Mr Akhtar but I drank in a steel glass while everyone had regular whiskey glasses. It is some sort of a ‘parda’. Enough of my background the only thing that really made me uncomfortable in those episodes was the presence of some mothers. Had I seen these episodes on my first night in Bombay (Third ;-) instance) I would be uncomfortable about the presence of women there too. But it has been two decades and I have moved on (I am not saying moved ahead) from those issues. May be another decade later I will not have a problem with the presence of mothers there too and I will endorse Zakka Jacob when he says ‘Some men like to have sex with men, and if their mothers don’t have a problem with it, why should you…’



Monday, October 27, 2014

Still Before Movie Making Became Tough



I feel blessed to have been directing actively through three entirely different eras of movie making. I suspect and hope soon I will see a fourth one. Which will be far more organic and ‘film friendly’ than what it is today.
Those were the days when one of the important questions a Producer asked a Director before he signed him on was “How many cans will you shoot?” A can used to be 400 ft of film and could cost Rs 8000 to Rs 12000. Good and efficient Directors would finish shooting a film in 500 cans. Number of cans weighed heavily on the budget of the film and was watched keenly every day by the Producer. I distinctly remember two Directors who did not think much of this tradition. Shashi Lal Nair, on the sets of ANGAAR once shouted ‘Raw stock is the cheapest commodity in film making’. He was right in a lot of ways. And then one Director, who has only made masterpieces, well mostly, Rajkumar Santoshi, came to be known as a Director who redefined raw stock consumption. But he only delivered blockbusters so the Producers were fine. Those were the days. There were some lucky Directors who started Directing on a video format called LOW BAND. It did not have much depth, just enough to capture the depth of the story. We did fine with those. I think the legendary TV shows Ramayan and Mahabharat were shot on Low Band. I remember there used to be a curfew like situation countrywide every time those shows aired. Early nineties they created Hi Band. It was virtually upper class Low Band. This was the time when Doordarshan briefly went commercial and started something called DD Metro. It did well until they shut it down. Personally I got my break as a Director on that channel. Today it sounds cheesy and corny but the show I was assisting on flopped right after it started. It was called AB AAYEGA MAZAA. Of course the MAZAA never came and then we were left with six more episodes to be shot just to honor the contract. A fall guy was needed. I begged to be one and became one. I Directed those six episodes and put in my papers to my Boss Pankuj Parashar. That is the cleverest thing I have done in my life.
By then they had started a new format called Betacam.  Right then a friend with fifty thousand Rupees to spare, developed some sort of confidence in me. Those were the days of TV pilots. A pilot was typically the first episode of a TV show that you had in your head or at best on paper. The system was to ‘make’ the first pilot episode and do the rounds of various channels to get commissioned for the rest of the episodes. 90% of the pilots then, did not make it to the ‘silicon screen’. SHIKAST was the name of the serial we invested in. Sourabh Shukla and I wrote it. The first phone call I made was to Mr. Shammi Kapoor. I was an audacious man. Audacity, to me, is the most precious virtue. You should be smart enough to tell between audacity and stupidity. There is a very thin line between the two. So think before you jump the gun. Shammi Ji was a great admirer of this virtue and chose to be a part of my adventure. Rest of the cast was friends. Later they would be big shining stars of the silver screen. Manoj Bajpayee, Ashish Vidyarthi, Milind Gunajee, Ashutosh Rana, Kittu Gidwani, Raj Zutshi  and many more. I was friends with this shy, quiet composer from Delhi who had done some advertising work for me. We would hang out together, drink and eat and think of working together. Vishal Bhardwaj was just a composer then with no ambition to Direct that I knew or he shared. He was close to Gulzar Sahab even then. In my audacious pursuits I wanted a published poem by him to be in the Credit sequence of the Pilot. Vishal took me to him thinking we will convince him on a good price. Bhai told me to come back after making the pilot. He would see it and decide if he would let me use the poem. I made the pilot and the audacious instincts were still alive and kicking. I went to Naseer bhai. Yes, Nseeruddin Shah. I honestly do not remember how I ever met him first. But I do remember I used to hang out on his sets. Those days sets were less professional and more personal. Today sets are compartmentalized in to vanity vans. The first Vanity van was created by well deserving Mr Bachchan followed by Anil Kapoor. They get vanity vans even for Assistant Directors these days. Call me old fashioned but these vanity vans do more harm than they serve.  A set is a place where you get to spend time with people with amazing skill sets. It could be acting, art direction, lighting, costume designing or whatever. These days it is way more professional. People come and do their jobs on the shot and go back to their vanity vans. However it is not besides the point that now we take way more number of days to complete a film.
I wanted Naseer Bhai to recite the poem for the title sequence of my pilot. He enquired about Bhai’s permission and I honestly told him I would use it only if Bhai approved it. Look at this naïve boy who didn’t realize he was talking about dumping Naseeruddin Shah’s Narration to Naseeruddin Shah. Look at the love for work, that Naseer Bhai Still chose to dub it.  Gulzar bhai left Rekha and me on the ground floor of Boskiyana and went upstairs to watch the pilot on a VHS not before sending Kiyani biscuits and Tea for Rekha and me. Kiyani Bisuits from Pune still used to be as good. I am a foodie and I loved those biscuits but Rakha and I were only discussing how much will bhai ask for. He finally came back, gave me a hug and said “Very well done. This is your struggle, and this poem is my contribution to it”. This is the most wonderful sentence anybody has ever said to me. As wonderful as my son saying ‘I love you’.
Honestly I didn’t think of Naseer bhai at that point at all. Now I do. What a gesture to drive down from Perry Cross Road to Khar on a Sunday morning to dub a poem for almost a stranger without knowing if the stranger will ever make anything out of it. I did. My love and gratitude to Naseer Bhai.  Little late but nevertheless. 
The pilot was screened for friends that I loved and respected. We had a wonderful response. I have never told Tishu (Tigmanshu Dhulia) that the hug he gave me after watching that pilot was the most satisfying feelings that year.  Actually there was another one that ran close. I had an assistant called Govind and the protagonist of SHIKAST was Vinit. I know this sounds disjointed but wait. Vinit epitomizes everything that describes Bihar. There was no Jharkhand then. Vinit called me one Sunday morning on my home number. There were no Cell Phones then. Groggily I answered the phone and Vinit announced “Haan… Vinit bol rahe hain, lo baat karo’. Another man took the phone and said ‘Haan Anubhav Govind bol raha hun’. It woke me up. How come Govind my assistant called me by my first name?  Now you see the connection? It wasn’t that Govind I soon realized “Govind Nihlani. What a wonderful pilot you have made. I love it”. Some sentences you can vividly hear years after they are spoken. This was one of those. The pilot got a buyer and just then world had upgraded Beta cam to Digibeta and my Producers decided to let me shoot on Digibeta.

There used to be a TV software company called UTV. They made small game shows like ‘Snakes and ladders’ etc. One ex theater guy named Ronnie Screwwalla ran the company. This was the fastest growing TV Production company in town. Ronnie was this suave, smooth, visionary entrepreneur. They called me once to direct a show for them. They wanted me to go meet them. I wasn’t an arrogant man. May be I was. I said I didn’t want to do game shows. Those were the days when you didn’t give a damn and did what you wanted to do. The man on the other side convinced me for the meeting saying they wanted to discuss a big fiction show with me. 

To Be Continued.....