Thursday, July 3, 2014

बम्बई मेरी जान


काफी समय बाद, बतौर निर्देशक, एक  ऐसी फिल्म पर काम कर रहा हूँ जो पूरी की पूरी बम्बई में है। राज भाई माफ़ करें, पर औपचारिक भाषा में मुंबई ही कहता हूँ।  दफ्तर वालो ने बजट पर सतही काम शुरू कर दिया है। लगातार एक ही सुझाव आ रहा है की शूटिंग बम्बई के बाहर करेंगे। मैं थोड़ा परेशान हूँ की फिल्म बम्बई के बारे में है तो बम्बई के बाहर कैसे शूट करेंगे? अब प्रोडक्शन वाले भी समझदार हो गए हैं, "चीट करेंगे न सर",  'ज़ीरो डार्क थर्टी' पाकिस्तान मे थोड़ी न शूट हुई है, चंडीगढ़ में हुई।  क्या सर आपको सिखाएंगे हम? पूना में शूट करते हैं, थोड़ा बहुत जो चीट करना असंभव है वो कर लेंगे यहां।  मैं परेशान हूँ कि ऐसा क्यों? तो जवाब सिर्फ एक है, "सर मुश्किल होता जा रहा है बम्बई में शूट करना, स्टूडियो के अंदर  फिर भी मैनेज हो जाता, पर सड़क पर नहीं सर, अपनी पूरी पिक्चर सड़क पे है।" 
जो बम्बई के रहने वाले हैं वो शायद नहीं समझेंगे की हम इमिग्रेंट्स के लिए बम्बई शेहेर नहीं है, बम्बई एक सपना है, एक छलावा है, एक रोमांस है, एक वादा है, एक जीत है, एक आग़ोश है, एक तमाचा है।  जाने क्या क्या है।  अभी घर पहुंचा तो 'मस्ती' चैनल पर पुराने गाने आ रहे थे।  शम्मी जी कुछ बच्चों के साथ एक कार में 'चक्के में चक्का' गा रहे थे मरीन ड्राइव पर।  और फिर फ़ौरन बाद अमित जी और मौसमी जी उन्हीं सड़कों पर 'रिम झिम गिरे सावन' गाते दिखे।  हमारे लिए बम्बई वो थी, जहां शम्मी कपूर रहते थे, जहां अमिताभ बच्चन रहते थे।  हमारे लिए वो सपना था एक।  शायद फिल्मकार बनने की जड़ें उन्हीं कुछ छवियों से बनीं, सो कहता हूँ कि बम्बई शेहेर नहीं है हमारे लिए। रोमांस है। इस शहर ने  हमारे जीवन की दिशा बदली है।  कम से कम मेरी तो शर्तिया।  इसी लिए जब राज भाई 'बम्बई' बोलने का विरोध करते हैं तो बुरा लगता है। नहीं कोई ईगो प्रॉब्लम नहीं है, 'मुक्तसर सी बात है, बम्बई से प्यार है' मुंबई में तो रहते हैं हम। 
बहारहाल, बम्बई बाहर वालों के लिए मरीन ड्राइव थी या नाज़ कैफ़े जहां से मरीन ड्राइव दिखता था।  'ऐ दिल है मुश्किल' में भी थोड़े से वी टी स्टेशन और मरीन ड्राइव ही हैं सिर्फ। धीरे धीरे बम्बई का विस्तार हुआ और बात आगे उत्तर की तरफ बड़ी और मुकुल आनंद के आते आते हाजी अली दरगाह तक पहुँची। अब हमारा बम्बई दर्शन थोड़ा ज़्यादा होता था। विनोद की 'परिंदा' में दक्षिण मुंबई में बाबुलनाथ मंदिर की सीढ़ियां थीं तो ऐनटॉप हिल की पानी की टंकी के ऊपर जैकी श्रॉफ की एंट्री। बम्बई बढ़ रही थी वास्तव में भी और हमारी कल्पनाओं में भी।  फिर बात बांद्रा में माउंट मैरी की सीढ़ियों तक पहुँची और फिर जुहू सर्कल और जाने क्या क्या।
दिल्ली- बम्बई राजधानी पकड़ने की जल्दी में भी मंडी हाउस चौराहे पर दोस्तों को अलविदा कहने के लिए ऑटो रोका।  सब ने हिदायतें दीं, 'एन के' ने तो यहां तक कहा की मत जा।  पर मैं तय कर चुका था. मैं और मेरा बजाज डी इ वी  २४३२ बम्बई जा रहे थे।  एक बात जो आज तक शायद किसी से कही नहीं, जब पहली बार बम्बई आया था न, तो सच बता रहा हूँ बम्बई एक दम वैसी थी जैसे मेरी कल्पनाओं में थी, उतनी ही सुन्दर, उतनी ही शांत, उतनी ही प्रेमिका सी उतनी ही दिलदार उतनी ही बेदिल। कभी लगता पूरी तरह समझ आ गयी और कभी लगता कि है कौन ये।
कुल मिला के बात ये कि बम्बई से रिश्ता लोगों का फिल्मों के ज़रिये है और रहेगा।  जैसा कि कहा मैंने, ये मुल्क़ का इकलौता शहर है शायद, जो शहर कम दोस्त ज़्यादा है, दुश्मन ज़्यादा है।  बम्बई शहर कम इंसान ज़्यादा है। 
बतौर फिल्मकार और बतौर दर्शक एक दर्द हुआ आज और तय किया कि इस बारे में कुछ कहा जाय। आखिरी बार कब देखा था कि सड़क पर शूटिंग हो रही है? कितने लोग जुहू सर्कल से गुज़रते हुए ये जानते हैं कि वहाँ  एक सर्कल था जहां दर्ज़नों गाने शूट हुए हैं।  शाह रुख के जीवन का पहला हिट गाना वहीँ शूट हुआ था 'कोई न कोई चाहिए प्यार करने वाला' ।  मैंने खुद कई सालों से वहाँ कुछ भी शूट होते नहीं देखा।  सच कह रहा हूँ अब बम्बई में फिल्में कम शूट हो रही हैं। ये एक दौर है कि जब बम्बई की शकल बदल रही है।  अट्टालिकाएं बन रही हैं, मेट्रो, मोनोरेल, बांद्रा कुर्ला काम्प्लेक्स और जाने क्या क्या। ये सब हमारे आने वाले वक़्त में इस शहर की तारीख में दर्ज़ होना चाहिए।
किसी की शिकायत करने के लिए नहीं लिख रहा हूँ पर ये वो बात है जो कहे बिना रहा भी नहीं जा रहा।  सडकों पर शूटिंग के लिए रिश्वत पहले भी दी जातीं थीं, यूनियन पहले भी थीं, जूनियर आर्टिस्ट पहले भी होते थे हाँ सियासी पार्टियों का दखल नहीं था पहले अब है। जाने क्यों, कुछ आसान कर देते तो समझ में आता, और मुश्किल  कर दिया है। बेहद मुश्किल। पैसे सब कमाएं पर इस शेहेर का नुक्सान न करें।  बम्बई की पहचान फिल्मों से है और फिल्मों की पहचान बम्बई से है।  दोनों को एक दूसरे को ज़िंदा रखना होगा। विश्व भर में इतने बड़े शहरों में फिल्म कमिशन्स होते हैं, एक व्यावसायिक तरीका होता है शूटिंग को आसान बनाने का।  वो स्वागत करते हैं कि उनके शहरों में फिल्में शूट की जांय। यहाँ इस शहर में किसी को पड़ी नहीं है।  सिर्फ इतना है कि आज की शूटिंग से दस हज़ार रुपये कैसे ऐंठ लिए जांय। अपने ज़मीर का तो नुक्सान कर ही रहे  हैं आप अपने शहर का भी कर रहे हैं। मेरी गुज़ारिश है उन सभी लोगों से जो इस विषय में मदद कर सकें तो अवश्य करें।  मेरी कहीं दरकार हो तो अवश्य आवाज़ दें। 
एक छवि जो भूल नहीं सकता बम्बई के मुतल्लिख, मेरे अज़ीज़ सुधीर मिश्रा की 'धारावी' से।  एक संकरी सी सड़क पर भागता लड़खड़ाता ऊँट जो सड़क पर गिर कर दम तोड़ता है और एक आवाज़ जो कहती है " ये रेगिस्तान का जानवर, समंदर के पास पता नहीं क्या करने आ जाता है". जी,  बम्बई में ऊँट भी होते थे। अब नहीं होते।  खैर हो बॉलीवुड  की कि बात दर्ज़ हो चुकी है। 
पुनःश्च: मेरे मित्र अजय ब्रह्मात्मज का फ़ोन आया था पिछले ब्लॉग के पश्चात।  कहा की लिख रहे हैं ये सराहनीय है, पर पत्रकारों सा न लिखें, व्यक्तिगत लिखें।  प्रयास किया है